Header Ads

ad728
  • Breaking News

    समीक्षा - वीरे दी वेडिंग (ट्रेलर) फ़िल्म ख़ुद को लड़कियों की असली ज़िंदगी पर आधारित बताती है


    समीक्षा - वीरे दी वेडिंग (ट्रेलर)


    फ़िल्म ख़ुद को लड़कियों की असली ज़िंदगी पर आधारित बताता है और फ़िल्म के कलाकार कहते हैं कि लड़कों की दोस्ती पर दिल चाहता है व प्यार का पंचनामा सरीखी फ़िल्में बनी हैं पर लड़कियों की दोस्ती पर बॉलीवुड में कोई एक्सपेरिमेंट नहीं हुआ है जबकि पिंक, लिप्स्टिक अंडर माय बुरखा, क्वीन, एंग्री इंडियन गॉडेसेस जैसी फ़िल्में हम देख चुके हैं


    फ़िल्म का नाम है वीरे दी वेडिंग, वीरा एक पंजाबी शब्द है जो भाई के लिए इस्तेमाल किया जाता है। ट्रेलर में हम देखते हैं कि चार लड़कियां बहुत अच्छी दोस्त हैं, खुलकर अपनी ज़िंदगी जीती हैं और अपने फैसले लेती हैं। अजीब ये लगता है कि अपनी दोस्त कालिंदी पुरी की शादी को वीरे दी वेडिंग नाम देना पड़ा, मतलब भाई की शादी, मतलब ब्रोपंती। हां, हम लड़कियां भी एक-दूसरे को ब्रो कहती हैं लेकिन ये विडम्बना है कि हम लड़कियों को कुछ भी बनने के लिए पहले अपने से अलग होना होता है।

    पहलवानी करने के लिए बाल कटवाओ, अब अपनी मनमर्ज़ी की ज़िंदगी जीने के लिए और कूल बनने के लिए ब्रो बनो इसलिए दोस्त की शादी हो जाती है - वीरे दी वेडिंग। हम लड़कियों को वहीं संतुष्ट समझा जाता है जहां हम लड़की के अलावा कुछ और हो जाएं। हम बराबर होने की कोशिश में लड़की होने को नकार देते हैं।


    लेडी डॉक्टर से लेकर लेडी इंस्पेक्टर जैसे शब्द महिला कर्मचारियों के लिए इस्तेमाल होते हैं जबकि ऐसा नहीं कि हर लेडी डॉक्टर गाइनी हो या सभी लेडी इंस्पेक्टर्स सिर्फ़ महिलाओं की सुरक्षा के लिए हों। लेकिन इससे ऊपर जब भी समानता की बात होती है तो लड़की ब्रो हो जाती है और ब्रो मतलब वीरा।


    फ़िल्म में जो मौज-मस्ती है, लड़कियों का घूमना-फिरना, खाना-पीना, अपने फैसले ख़ुद लेना... ये कोई काल्पनिक दुनिया नहीं है और ऐसा भी नहीं है कि लड़कियां आपस में सती सावित्री ही बनी रहती हैं लेकिन ट्रेलर देखकर ये ग़लतफ़हमी हो जाती है कि अपने फैसले लेने के लिए आपका कूल बनी रहना और कूल बनी रहने के लिए फर्राटेदार गालियां देना अनिवार्य है। गालियों की भरमार नारीवाद (फ़ेमिनिज़म) की परिभाषा नहीं है लेकिन हम जब भी मज़बूत बनने के दावे करते हैं तो रेप्लिका बनकर रह जाते हैं।


    यदि यह ट्रेलर ही मज़बूत लड़कियों की कहानी है तो हम लड़कियों को स्वीकार लेना चाहिए कि हम इनफ़ीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स का शिकार हैं। हम समानता की बातें कर के पुरुषों का रेप्लिका बनने लगते हैं। जबकि वो समानता नहीं है। 


    इसपर ये दलील दी जा सकती है कि गैंग्स ऑफ़ वासेपुर जैसी फ़िल्मों में गालियों पर तालियां बजी थीं और करीना ने जिस अंदाज़ में ट्रेलर लॉन्च में कई सवालों के जवाब में ये कहा कि क्या आप किसी लड़के से ऐसा पूछते; वैसे ही करीना की दलील फिर परोसी जा सकती है। इसपर एक सवाल यह है कि क्या आप मान चुकी हैं कि पुरुष जो करते हैं, सब ठीक करते हैं? क्या आप उन्हें सर्वोत्तम मानने को और हमेशा उनका अनुसरण (फॉलो) करने को तैयार हैं? क्या आपके फ़ेमिनिज़्म की परिभाषा इतनी संकुचित है?


    कई ऐसी बातें हैं जो फ़िल्म में उठायी गयी हैं और जिनमें हम लड़कियां आमतौर पर उलझी रहती हैं। हां, ये सच है कि अब हममें से हर लड़की को शादी ज़िंदगी का ऑक्सीज़न नहीं लगती जो न किया तो जी नहीं सकेंगी। हम में बहुत-सी लड़कियां शादी को लेकर कई सवालों से घिरी हैं क्योंकि अब हम सबकुछ स्वीकारने वाली त्याग की देवी नहीं हैं, हमने अपने लिए भी सोचना शुरू कर दिया है लेकिन ये बातें कहने के लिए हर बार "बहनचोद" जैसे शब्द का इस्तेमाल ज़रूरी नहीं है।


    दूसरे दृश्य में एक लड़की को जब उसका पति काम करने को कहता है तो वह उसे एहसास दिलाती है कि वो घर संभालती है, इस एहसास दिलाने के लिए वो "चूत" शब्द से उसे संबोधित करती है। चूतिया का शाब्दिक अर्थ बेवकूफ़ होता है लेकिन वो लड़की "चूत" कहकर ही रह जाती है। हमें यह समझने की ज़रूरत है कि ख़ुद के लिए अपशब्द का इस्तेमाल कर के हम उनके जैसे हो सकते हैं लेकिन उनके बराबर नहीं क्योंकि हमें फ़ॉलो करने की आदत पड़ चुकी है।


    कालिंदी पुरी एक और अहम मुद्दा उठाती है, वह ये कि दो लोगों की शादी में इतना ताम-झाम क्यों? उम्मीद है कि फ़िल्म के माध्यम से उस समाज पर कटाक्ष देखने को मिलेगा जो किसी लड़की या लड़के की शादी में उस लड़की या लड़के को छोड़कर पूरी दुनिया और दुनियादारी की फ़िक्र करता है। 


    चार लड़कियों की अलग-अलग कहानियां हैं - एक ने घर से भागकर शादी की, दूसरी ने तलाक़ ले लिया, तीसरी ने तय हुई शादी तोड़ दी और चौथी की मां उसे ये सब सुना रही है पर लड़की को अपनी दोस्तों से कोई प्रॉब्लम नहीं है क्योंकि जब लड़कियां सोचना शुरू करती हैं तो सवाल उठते हैं।


    तब सबकुछ सहज स्वीकारा नहीं जाता। तब वो जानना चाहती हैं कि जो वो कर रही हैं वो क्यों कर रही हैं। औरतों का सवाल करना इस समाज के अहम पर चोट करता रहा है लेकिन अब औरतों ने सवाल करना शुरू कर दिया है। अब वो रस्मों पर क़ुर्बान नहीं होंगी, उनमें अपना वजूद तलाशेंगी।
    उम्मीद है कि यह फ़िल्म शराब और शबाब का पर्याय न रहे और कुछ बेहतर संदेश लेकर आए ...✍️ रीवा सिंह


    आप हमसे Facebook Twitter Instagram YouTube Google Plus पर भी जुड़ सकते हैं

    No comments

    Post Top Ad

    ad728

    Post Bottom Ad

    ad728