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    लड़ाई धर्म की है ही नहीं लड़ाई तो बाजार की है दैनिक जागरण के उर्दू अखबार इंकलाब का करें बॉयकॉट पढ़े पूरी खबर... The Fakharpur City

    लड़ाई धर्म की है ही नहीं लड़ाई तो बाजार की है।

    एक अखबार है दैनिक जागरण वह हिन्दी में खबर प्रकाशित करता है कि कठुआ में दुष्कर्म नही हुआ, उसी अखबार का उर्दू संस्करण इंक्लाब उर्दू में कठुआ की वह रिपोर्ट प्रकाशित करता है जो फारेंसिक लैब ने सौंपी है। हिन्दी अखबार अपने ‘हिन्दू’ बाजार पर काबिज होने के लिये झूठी खबर प्रकाशित करता है, और उसी का उर्दू अखबार अपने ‘मुस्लिम’ बाजार पर काबिज होने के लिये वह रिपोर्ट देता है जो लैब ने भेजी थी। व्यापारी शातिर है, वह दोनों को खुश कर रहा है।
    उसे समाज से कोई सरोकार नही है बाजार से सरोकार है, उसे मालूम है कि अगर मुसलमान उसका दैनिक जागरण नहीं खरीदेंगे तो इंक्लाब खरीदेंगे


    ऐसे ही जैसे जी न्यूज रात दिन मुसलमानों को गलियाता है और उसी का उर्दू चैनल जी सलाम रात दिन मुसलमानों के ‘हितों’ की बात करता है। कठुआ मामले पर दैनिक जागरण की रिपोर्ट देखिये, फिर इंक्लाब की रिपोर्ट देखिये। थोड़ी देर के लिये जी न्यूज देखिये और फिर जी सलाम देखिये। एक ही छत के नीचे से प्रसारित प्रकाशित होने वाले ये मीडिया माध्यम किस तरह बाजार पर काबिज हो जाते हैं यह आपको बखूबी समझ आ जायेगा। बिल्कुल उसी तरह जिस तरह न्यूज 18 इंडिया के कई एंकर हर रोज मुसलमानों को गालियां देते हैं, और उन्हीं का उर्दू ब्रांड ईटीवी मुस्लिम मसायल की बात करता है। मामला बाजार का है।

    पत्रकारिता का जनाजा तो पहले उठ चुका है, अब तो शायद उसकी हड्डियां भी गल गई होंगी। अब पत्रकारिता नाम की कोई चीज नही है सिर्फ बाजार है, धंधा है। और धंधे के लिये वह सबकुछ किया जा रहा है जो नहीं करना चाहिये। फिर चाहे वह झूठ हो या सच इससे क्या मतलब नोटों का रंग और साईज तो एक जैसा ही है। चाहे मुसलमान की जेब से निकलकर अखबार के मालिक की जेब में आये या हिन्दू की जेब से निकलकर चैनल के मालिक की जेब में आये। और आप (जिसमें मैं भी शामिल हूं)


     दैनिक जागरण के खिलाफ ये जो क्रान्ति कर रहे हैं। आपको क्या लगता है कि इससे उस संस्थान की बेगैरती को कुछ लिहाज आयेगी ? बिल्कुल नहीं बल्कि इस देश का वह वर्ग जो 14 प्रतिशत आबादी से ‘डर’ जाता है, वह वर्ग उसी रिपोर्ट को सच मानेगा जो झूठी है, लेकिन प्रकाशित हो गई है। क्योंकि लोग गुलाम हैं, जंजीरों में नहीं बल्कि मानसिक रूप से गुलाम हैं, ये लोग जेहनी तौर पर अपाहिज हो चुके हैं। राहत साहब कहते हैं  
    ये लोग पांव नहीं जेहन से अपाहिज हैं
    उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चलाता है

    आप हमसे Facebook Twitter Instagram YouTube पर भी जुड़ सकते हैं  (लेखक समाज सेवक है)

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